PM stresses on conservation of agro-biodiversity
New Delhi, November 6
Expressing
concern over extinction of some plant and animal species, Prime
Minister Narendra Modi on Sunday said global laws on conservation of
agro-biodiversity should be harmonised in a way that they do not hamper
growth of the agriculture sector in developing nations.
He
also cautioned against ignoring sustainable development and
conversation of biodiversity while finding solutions to poverty,
malnutrition and hunger through science and technology.
Addressing
the first International Agro-biodiversity Congress, Modi emphasised on
focused research and proper management of genetic resources.
As
threat to genetic resources is going to increase in the coming days,
there should be "shared vision" with pooled resources from national,
international, private bodies and scientific experts across the world
towards conservation of biodiversity, he said.
"We
will have to see how various laws related to agro- biodiversity can be
harmonised so that they do not come in the way of development of
agriculture and farmers," he said.
"People
have exploited natural resources blindly in the name of development. As
a result, challenges are going to grow in the coming days. In the
current scenario, discussion and research on agro-biodiversity are very
important for achieving global food, nutrition, health and environment
security," he added.
Modi
expressed concern over extinction of 50-150 species every day and said
that in the coming years there is a threat to one out of eight birds and
one-fourth of animals.
He added that biodiversity conservation should be more a matter of individual consciousness than rules and regulation.
"World
over, crores of people are fighting hunger, malnutrition and poverty.
To address these issues, science and technology is very important. While
finding solution to these problems, we should not ignore sustainable
development and conservation of biodiversity," Modi said.
Highlighting
that India is rich in agro-biodiversity, he said the country has 6.5
per cent of the world's biodiversity and feeds 17-18 per cent of the
global human and animal population with only 2.5 per cent of the land
resources.
"Our
country is agriculture based and more than 50 per cent of the
population is dependent on it. Our philosophy has been to keep natural
resources intact and focus on development. Even development programmes
across the world are based on this philosophy," he said.
Stating
that the problem of climate change has been due to imbalance in nature,
Modi said, "In view of global warming threat, we have ratified Paris
agreement on October 2. India is playing a leading role." —PTI
मंचस्थ अन्य महानुभाव,
देवियों और सज्जनों,
मुझे आज एग्रोबायोडाइवर्सिटी के क्षेत्र में काम कर रहे दुनिया के बड़े बड़े साइंटिस्ट्स, एजूकेशनलिस्ट, पॉलिसी मेकर्स और मेरे अपने किसान भाइयों के बीच आकर प्रसन्नाता का अनुभव हो रहा है। मैं, इस अवसर पर विश्व के अलग-अलग हिस्सोंस से यहां पधारे डेलीगेट्स का इस ऐतिहासिक नगरी में हार्दिक स्वाहगत करता हूं। यह अहम विषय- एग्रोबायोडाइवर्सिटी पर पहली बार विश्व स्तर के इस सम्मेलन की शुरुआत भारत से हो रही है, ये मेरे लिए दोहरी खुशी का विषय है।
विकास की अंधाधुंध दौड़ में प्रकृति का जितना शोषण इंसान ने किया, उतना किसी ने नहीं किया और अगर कहें कि सबसे ज्यादा नुकसान पिछली कुछ शताब्दियों में हुआ है तो गलत नहीं होगा।
ऐसे में आने वाले समय में चुनौतियां बढ़ने जा रही हैं। वर्तमान समय में GLOBAL FOOD, NUTRITION, HEALTH और ENVIRONMENT SECURITY के लिए एग्रोबायोडाइवर्सिटी पर चर्चा, उस पर रिसर्च बहुत अहम है।
अपनी जियो-डायवर्सिटी, topography और विभिन्न प्रकार के अलग-अलग क्लाइमेटिक zones की वजह से भारत बायोडाईवर्सिटी के मामले में बहुत समृद्ध राष्ट्र है। पश्चिम में रेगिस्तान है तो उत्तर-पूर्व में दुनिया की सबसे ज्यादा नमी वाला हिस्सा है। उत्तर में हिमालय है तो दक्षिण में अथाह समुद्र है।
भारत में 47 हजार से ज्यादा प्लांट स्पेसीज पाई जाती हैं और जानवरों की 89 हजार से ज्यादा प्रजातियां हैं। भारत के पास 8100 किलोमीटर से ज्यादा का समुद्र तट है।
ये इस देश की अद्भुत क्षमता है कि सिर्फ 2.5 परसेंट भूभाग होने के बावजूद, ये जमीन दुनिया की 17 प्रतिशत HUMAN POPULATION को, 18 प्रतिशत ANIMAL POPULATION को और साढ़े 6 प्रतिशत बायो-डाइवर्सिटी को यह अपने में संजोये हुए है, संभाल रही है।
हमारे देश की सोसायटी हजारों हजार साल से एग्रीकल्चर बेस्ड रही है। आज भी एग्रीकल्चर सेक्टर देश की आधी से ज्यादा आबादी को रोजगार मुहैया करा रहा है।
इंडियन एग्रीकल्चर की फिलॉसफी रही है नैचुरल रिसोर्सेस को इनटैक्ट रखते हुए, उनका कन्जरवेशन करते हुए अपनी आवश्यकता भर और उसके मुताबिक उन्हें इस्तेमाल करना। आज दुनिया में जितने भी डेवलपमेंट प्रोग्राम्स हैं, वो इसी फिलॉसफी पर ही केंद्रित हैं।
बायोडाइवर्सिटी का केंद्र नियम-कायदे या रेग्यूलेशंस नहीं बल्कि हमारी चेतना यानि CONSCIOUSNESS में होनी चाहिए। इसके लिए बहुत कुछ पुराना भूलना होगा, बहुत कुछ नया सीखना होगा। प्राकृतिक चेतना का ये भारतीय विचार इसावस्य उपनिषद में नज़र आता है। विचार ये है कि BIO-CENTRIC WORLD में मानव सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा भर है। यानि पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं का महत्व इंसान से कम नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र MILLENNIUM DEVELOPMENT GOAL ने विकास में संस्कृति की बड़ी भूमिका को स्वीकार किया है। UN 2030 AGENDA FOR SUSTAINABLE DEVELOPMENT में भी माना गया है कि सतत विकास के लिए संस्कृतियों और सभ्यताओं का योगदान नितांत आवश्यक है।
प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने में संस्कृति की बहुत अहमियत है। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि AGRICULTURE में ही CULTURE भी जुड़ा हुआ है।
भारत में मौजूद अलग-अलग SPECIES की अलग-अलग वैरायटी इतने सालों में आज भी इसलिए बची हुई है क्योंकि हमारे पुरखे सोशियो-इकोनॉमिक पॉलिसी में माहिर थे। उन्होंने PRODUCE को सामाजिक संस्कारों से जोड़ दिया था। तिलक लगेगा तो उसके साथ चावल के दाने भी होंगे, सुपारी पूजा में रखी जाएगी। नवरात्र में या व्रत के दिनों में कुटू या बकव्हीट के आटे की से रोटी या पूड़ी बनती है। बकव्हीट एक जंगली फूल का बीज है। यानि जब प्रजातियों को समाजिक संस्कार से जोड़ दिया गया तो संरक्षण भी हुआ और किसानों का आर्थिक फायदा भी ।
दोस्तों, इस बारे में मंथन किया जाना चाहिए, इसलिए आवश्यक है क्योंकि 1992 में बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी कन्वेन्शन के प्रस्तावों को स्वीकार किए जाने के बावजूद आज भी हर रोज 50 से 150 SPECIES खत्म हो रही हैं। आने वाले सालों में आठ में से एक पक्षी और एक चौथाई जानवरों के भी विलुप्त होने का खतरा है।
इसलिए अब सोचने का तरीका बदलना होगा। जो अस्तित्व में है उसे बचाने के साथ साथ, उसे और मजबूत करने पर ध्यान देना होगा। दुनिया के हर देश को एक दूसरे से सीखना होगा। ये तभी हो पाएगा जब एग्रोबायोडाइवर्सिटी के क्षेत्र में रिसर्च पर जोर दिया जाएगा। एग्रोबायोडाइवर्सिटी को बचाने के लिए दुनिया के बहुत से देशों में अलग-अलग तरीके अपनाए जा रहे हैं। इसके लिए उचित होगा कि आप सब मिलकर विचार करें कि क्या हम ऐसी प्रैक्टिस की रजिस्ट्री बना सकते हैं जहां ऐसी सभी PRACTICES को मैप करके उसका रिकॉर्ड रखा जाए और फिर साइंटिफिक तरीके से रिसर्च कर देखा जाए कि किन ऐसी PRACTICES को और बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है।
भारत के अलग-अलग हिस्सों में हमारी संस्कृति ने भी ऐसी-ऐसी प्रजातियां बचाकर रखी हैं, जो हैरत पैदा करती हैं। साउथ इंडिया में चावल की एक बहुत पुरानी वैरायटी है- कोनाममी (KONAMAMI) दुनिया भर में चावल की पैदावार बढ़ाने के लिए बेस रूप में इस वैरायटी का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसी तरह केरल के पोक्काली चावल की वैरायटी को ऐसी जगहों के लिए विकसित किया जा रहा है जहां पानी बहुत ज्यादा होता है, या खारा होता है, salty होता है ।
मैं FOREIGN DELEGATES को खासतौर पर बताना चाहूंगा कि भारत में चावल की एक लाख से भी ज्यादा LAND RACES हैं और इनमें से ज्यादातर सैकड़ों साल पुरानी हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे किसान इन को सहेज कर रखते गए और उसका विकास करते रहे।
और ये सिर्फ एक SPECIFIC AREA में ही नहीं हुआ। असम में अगूनी बोरा चावल की एक वैरायटी है जिसे सिर्फ थोड़ी देर पानी में भिगोकर भी खाया जा सकता है। ग्लाइसीमिक इंडेक्स के मामले में भी ये काफी LOW है, इसलिए डायबिटीज के पेशेंट्स भी इसे अपनी डाइट में शामिल कर सकते हैं।
इसी तरह गुजरात में भाल इलाके में गेंहू की एक प्रजाति है- भालिया wheat..। इसमें अधिक प्रोटीन और कैरोटिन पाई जाती है इसलिए ये दलिया और पास्ता बनाने के लिए बहुत पॉप्यूलर है। गेहूं की ये वैरायटी जीयोग्राफिकल आइडेंटिफिकेशन के रूप में रजिस्टर की गई है।
एग्रीकल्चर बायोडायवर्सिटी के एरिया में भारत का बहुत योगदान दूसरे देशों में भी रहा है।
हरियाणा की मुर्राह और गुजरात की जाफराबादी भैंसों की पहचान इंटरनेशनल ट्रांस-बाउंड्री ब्रीड के तौर पर की जाती है। इसी तरह भारत की ही ओंगोल, गिर और कांकरेज जैसी गाय की नस्लें लैटिन अमेरिकन देशों को वहां के प्रजनन सुधार कार्यक्रम के लिए उपलब्ध कराई गई थी। पश्चिम बंगाल के सुंदरवन से भेड़ की गैरोल नस्ल को ऑस्ट्रेलिया तक भेजा गया था।
एनीमल बायोडाइवर्सिटी के मामले में भारत एक समृद्ध राष्ट्रश है। लेकिन भारत में Nondescript पशु प्रजातियां ज्यारदा हैं और अभी तक केवल 160 प्रजातियों को ही रजिस्टर किया जा सका है। हमें अपनी रिसर्च को इस दिशा में मोड़ने की जरूरत है ताकि और अधिक पशु नस्लोंअ का characterization किया जा सके और उन्हेंर समुचित नस्लर के रूप में रजिस्टर किया जा सके।
कुपोषण, भुखमरी, गरीबी – इसे दूर करने के लिए टेक्नोलॉजी की बहुत बड़ी भूमिका है। लेकिन इस पर भी ध्यान देना होगा कि टेक्नॉलॉजी हम पर कैसे असर डाल रही है। यहां जितने भी लोग हैं, कुछ साल पहले तक आपमें और मुझे भी हर किसी को 15-20 फोन नंबर जरूर या रहे होंगे। लेकिन अब हालत यह हो गयी है कि मोबाइल फोन आने के बाद हमारा खुद का मोबाइल नंबर या फ़ोन नंबर हमें याद नहीं है | यह टेक्नोलोजी का एक नेगेटिव इम्पेक्ट भी है |
हमें अलर्ट रहना होगा कि एग्रीकल्चर में अपनाई जा रही टेक्नॉलॉजी से किस प्रकार से बदलाव आ रहा है। एक उदाहरण है HONEY BEE का। तीन साल पहले HONEY BEE TIME मैगजीन के कवर पेज पर थी। बताया गया कि फसलों को कीड़ों से बचाने के लिए जो पेस्टिसाइड इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे मधुमक्खी अपने छत्ते तक पहुंचने का रास्ता भूल जाती है। एक छोटी सी चीज ने मधुमक्खी पर अस्तित्व का संकट ला दिया। पॉलीनेशन में मधुमक्खी की भूमिका हम सभी को पता है। इसका रिजल्ट ये हुआ कि फसलों का उत्पादन भी गिरने लगा।
एग्रीकल्चर इकोसिस्टम में पेस्टिसाइड बड़ी चिंता का विषय हैं। इसके उपयोग से फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों के साथ ही वो INSECTS भी मर जाते हैं जो पूरे इकोसिस्टम के लिए जरूरी हैं। इसलिए AUDIT OF DEVELOPMENT OF SCIENCE भी आवश्यक है। AUDIT ना होने से दुनिया इस वक्त कई चुनौतियों से जूझ रही है।
हमारे देश में बायोडाइवर्सिटी की भिन्नता को एक ताकत की तरह लिया जाना चाहिए। लेकिन ये तब होगा जब इस ताकत का वैल्यू एडीशन किया जाए, उस पर रिसर्च हो। जैसे गुजरात में एक घास होती है बन्नी घास। उस घास में हाई न्यूट्रिशन होता है। इस वजह से वहां की भैंस ज्यादा दूध देती हैं। अब इस घास की विशेषताओं को वैल्यू ADD करके पूरे देश में इसका प्रसार किया जा सकता है। इसके लिए रिसर्च का दायरा बढ़ाना होगा।
देश की धरती का लगभग 70 प्रतिशत महासागर से घिरा हुआ है। दुनिया में मछली की अलग-अलग स्पेसीज में से 10 प्रतिशत भारत में ही पाई जाती हैं। समुद्र की इस ताकत को हम सिर्फ मछली पालन ही केंद्रित नहीं रख सकते। वैज्ञानिकों को समुद्री वनस्पति, SEA WEED की खेती के बारे में भी अपना प्रयास बढ़ाना होगा। SEA WEED का इस्तेमाल बायो फर्टिलाइजर बनाने में हो सकता है। GREEN और WHITE REVOLUTION के बाद अब हमें BLUE REVOLUTION को भी समग्रता में देखने की आवश्यकता है।
आपको एक और उदाहरण देता हूं। हिमाचल प्रदेश में मशरूम की एक वैरायटी होती है- गुच्ची। इसकी MEDICINAL VALUE भी है। बाजार में गुच्ची मशरूम 15 हजार रुपए किलो तक बिकता है। क्या गुच्ची की पैदावार बढ़ाने के लिए कुछ किया जा सकता है। इसी तरह CASTOR हो या MILLET यानि बाजरा हो । इनमें भी वर्तमान जरूरतों के हिसाब से VALUE ADDITION किए जाने की आवश्यकता है।
लेकिन यहां एक बारीक लाइन भी है। वैल्यू एडीशन का मतलब प्रजातियों से छेड़छाड़ नहीं है।
प्रकृति की सामान्य प्रक्रिया में दखल देकर ही मानव ने क्लाइमेंट चेंज जैसी समस्या खड़ी कर ली है। तापमान में बढोतरी की वजह से पौधों और जीव-जंतुओं के जीवन-चक्र में बदलाव आ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक क्लाइमेट चेंज की वजह से 2050 तक कुल वन्य प्रजातियों का 16 प्रतिशत तक विलुप्त हो सकता है। ये स्थिति चिंता पैदा करती है।
ग्लोबल वॉर्मिंग के इसी खतरे को समझते हुए भारत ने पिछले महीने 2 अक्तूबर, महात्मा गांधी की जन्म जयंती पर , पेरिस समझौते को RATIFY कर दिया है। इस समझौते को पूरी दुनिया में लागू कराने में भारत अहम भूमिका निभा रहा है। ये प्रकृति के प्रति हमारी जिम्मेदारी और जवाबदेही की वजह से है।
एग्रोबायोडाइवर्सिटी का PROPER मैनेजमेंट पूरी दुनिया के लिए प्राथमिकता है। लगातार बढ़ रही जनसंख्या का दबाव और विकास की अंधाधुंध दौड़ प्राकृतिक संतुलन को काफी हद तक बिगाड़ रहें है। इसकी एक वजह ये भी है कि मॉर्डन एग्रीकल्चर में बहुत ही गिनी चुनी फसलों और पशुओं पर ध्यान दिया जा रहा है। जबकि ये हमारी FOOD SECURITY, ENVIRONMENTAL SECURITY के साथ-साथ AGRICULTURE DEVELOPMENT के लिए भी आवश्यक था।
बायोडाइवर्सिटी के संरक्षण का अहम पहलू है आसपास के ENVIRONMENT को चुनौतियों के लिए तैयार करना। इसके लिए GENEBANKS में किसी स्पेसिफिक GENE का संरक्षण करने के साथ ही उसे किसानों को इस्तेमाल के लिए उपलब्ध भी कराना होगा। ताकि जब वो GENE खेत में रहेगा, जलवायु दबाव सहेगा, आसपास के माहौल के अनुकूल बनेगा तभी उसमें प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो पाएगी।
हमें ऐसा मैकेनिज्मस तैयार करना होगा कि हमारा किसान DESIRABLE GENES का मूल्यां कन अपने खेत में करे और इसके लिए किसान को उचित कीमत भी दी जाए। ऐसे किसानों को हमें अपने रिसर्च वर्क का हिस्सान बनाना चाहिए ।
बायोडाइवर्सिटी के संरक्षण के लिए International, National & Private संगठन और Expertise, technology & resources का pool बनाकर कार्य करें तो सफलता मिलने की संभावना निश्चित रूप से बढ़ेगी । इस प्रयास में हमें एक shared vision बनाने और अपनाने की दिशा में बढ़ना होगा।
हमें ये भी देखना होगा कि एग्रोबायोडाइवर्सिटी के संरक्षण से जुड़े अलग-अलग नियमों को किस प्रकार harmonize करें जिससे कि ये कानून विकासशील देशों में कृषि और किसानों की प्रगति में बाधक न बनें।
आप सभी अपने-अपने क्षेत्र के EXPERTS हैं। आपके द्वारा इस सम्मेनलन में अगले तीन दिनों में एग्रोबायोडाइवर्सिटी के विभिन्न पहलुओं पर गहन चर्चा की जाएगी।
आज दुनिया के करोड़ों गरीब हंगर, मालन्यूट्रिशन और पावर्टी जैसी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। इन चुनौतियों से निपटने के लिए साइंस और टेक्नॉलोजी की भूमिका बहुत अहम है। इस बात पर मंथन आवश्यक है कि इन समस्याओं का हल निकालते समय SUSTAINABLE DEVELOPMENT और बायोडाइवर्सिटी के संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण आयामों की अनदेखी ना की जाए।
साथियों, हमारी एग्रोबायोडाइवर्सिटी आगामी पीढि़यों की धरोहर है और हम केवल इसके संरक्षक हैं इसलिए हम सब मिलकर सामूहिक प्रयास से ये सुनिश्चित करें कि ये NATURAL RESOURCE हम अपनी भावी पीढि़यों के लिए उसी रूप में उन्हें सौपें जिस रूप में हमारे पूर्वजों ने इसे हमें सौंपा था। इसके साथ फिर से एक बार आप सबका ह्रदय से स्वागत करते हुए बहुत
Text of PMs speech at International Agro Biodiversity Congress 2016
मंचस्थ अन्य महानुभाव,
देवियों और सज्जनों,
मुझे आज एग्रोबायोडाइवर्सिटी के क्षेत्र में काम कर रहे दुनिया के बड़े बड़े साइंटिस्ट्स, एजूकेशनलिस्ट, पॉलिसी मेकर्स और मेरे अपने किसान भाइयों के बीच आकर प्रसन्नाता का अनुभव हो रहा है। मैं, इस अवसर पर विश्व के अलग-अलग हिस्सोंस से यहां पधारे डेलीगेट्स का इस ऐतिहासिक नगरी में हार्दिक स्वाहगत करता हूं। यह अहम विषय- एग्रोबायोडाइवर्सिटी पर पहली बार विश्व स्तर के इस सम्मेलन की शुरुआत भारत से हो रही है, ये मेरे लिए दोहरी खुशी का विषय है।
विकास की अंधाधुंध दौड़ में प्रकृति का जितना शोषण इंसान ने किया, उतना किसी ने नहीं किया और अगर कहें कि सबसे ज्यादा नुकसान पिछली कुछ शताब्दियों में हुआ है तो गलत नहीं होगा।
ऐसे में आने वाले समय में चुनौतियां बढ़ने जा रही हैं। वर्तमान समय में GLOBAL FOOD, NUTRITION, HEALTH और ENVIRONMENT SECURITY के लिए एग्रोबायोडाइवर्सिटी पर चर्चा, उस पर रिसर्च बहुत अहम है।
अपनी जियो-डायवर्सिटी, topography और विभिन्न प्रकार के अलग-अलग क्लाइमेटिक zones की वजह से भारत बायोडाईवर्सिटी के मामले में बहुत समृद्ध राष्ट्र है। पश्चिम में रेगिस्तान है तो उत्तर-पूर्व में दुनिया की सबसे ज्यादा नमी वाला हिस्सा है। उत्तर में हिमालय है तो दक्षिण में अथाह समुद्र है।
भारत में 47 हजार से ज्यादा प्लांट स्पेसीज पाई जाती हैं और जानवरों की 89 हजार से ज्यादा प्रजातियां हैं। भारत के पास 8100 किलोमीटर से ज्यादा का समुद्र तट है।
ये इस देश की अद्भुत क्षमता है कि सिर्फ 2.5 परसेंट भूभाग होने के बावजूद, ये जमीन दुनिया की 17 प्रतिशत HUMAN POPULATION को, 18 प्रतिशत ANIMAL POPULATION को और साढ़े 6 प्रतिशत बायो-डाइवर्सिटी को यह अपने में संजोये हुए है, संभाल रही है।
हमारे देश की सोसायटी हजारों हजार साल से एग्रीकल्चर बेस्ड रही है। आज भी एग्रीकल्चर सेक्टर देश की आधी से ज्यादा आबादी को रोजगार मुहैया करा रहा है।
इंडियन एग्रीकल्चर की फिलॉसफी रही है नैचुरल रिसोर्सेस को इनटैक्ट रखते हुए, उनका कन्जरवेशन करते हुए अपनी आवश्यकता भर और उसके मुताबिक उन्हें इस्तेमाल करना। आज दुनिया में जितने भी डेवलपमेंट प्रोग्राम्स हैं, वो इसी फिलॉसफी पर ही केंद्रित हैं।
बायोडाइवर्सिटी का केंद्र नियम-कायदे या रेग्यूलेशंस नहीं बल्कि हमारी चेतना यानि CONSCIOUSNESS में होनी चाहिए। इसके लिए बहुत कुछ पुराना भूलना होगा, बहुत कुछ नया सीखना होगा। प्राकृतिक चेतना का ये भारतीय विचार इसावस्य उपनिषद में नज़र आता है। विचार ये है कि BIO-CENTRIC WORLD में मानव सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा भर है। यानि पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं का महत्व इंसान से कम नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र MILLENNIUM DEVELOPMENT GOAL ने विकास में संस्कृति की बड़ी भूमिका को स्वीकार किया है। UN 2030 AGENDA FOR SUSTAINABLE DEVELOPMENT में भी माना गया है कि सतत विकास के लिए संस्कृतियों और सभ्यताओं का योगदान नितांत आवश्यक है।
प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने में संस्कृति की बहुत अहमियत है। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि AGRICULTURE में ही CULTURE भी जुड़ा हुआ है।
भारत में मौजूद अलग-अलग SPECIES की अलग-अलग वैरायटी इतने सालों में आज भी इसलिए बची हुई है क्योंकि हमारे पुरखे सोशियो-इकोनॉमिक पॉलिसी में माहिर थे। उन्होंने PRODUCE को सामाजिक संस्कारों से जोड़ दिया था। तिलक लगेगा तो उसके साथ चावल के दाने भी होंगे, सुपारी पूजा में रखी जाएगी। नवरात्र में या व्रत के दिनों में कुटू या बकव्हीट के आटे की से रोटी या पूड़ी बनती है। बकव्हीट एक जंगली फूल का बीज है। यानि जब प्रजातियों को समाजिक संस्कार से जोड़ दिया गया तो संरक्षण भी हुआ और किसानों का आर्थिक फायदा भी ।
दोस्तों, इस बारे में मंथन किया जाना चाहिए, इसलिए आवश्यक है क्योंकि 1992 में बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी कन्वेन्शन के प्रस्तावों को स्वीकार किए जाने के बावजूद आज भी हर रोज 50 से 150 SPECIES खत्म हो रही हैं। आने वाले सालों में आठ में से एक पक्षी और एक चौथाई जानवरों के भी विलुप्त होने का खतरा है।
इसलिए अब सोचने का तरीका बदलना होगा। जो अस्तित्व में है उसे बचाने के साथ साथ, उसे और मजबूत करने पर ध्यान देना होगा। दुनिया के हर देश को एक दूसरे से सीखना होगा। ये तभी हो पाएगा जब एग्रोबायोडाइवर्सिटी के क्षेत्र में रिसर्च पर जोर दिया जाएगा। एग्रोबायोडाइवर्सिटी को बचाने के लिए दुनिया के बहुत से देशों में अलग-अलग तरीके अपनाए जा रहे हैं। इसके लिए उचित होगा कि आप सब मिलकर विचार करें कि क्या हम ऐसी प्रैक्टिस की रजिस्ट्री बना सकते हैं जहां ऐसी सभी PRACTICES को मैप करके उसका रिकॉर्ड रखा जाए और फिर साइंटिफिक तरीके से रिसर्च कर देखा जाए कि किन ऐसी PRACTICES को और बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है।
भारत के अलग-अलग हिस्सों में हमारी संस्कृति ने भी ऐसी-ऐसी प्रजातियां बचाकर रखी हैं, जो हैरत पैदा करती हैं। साउथ इंडिया में चावल की एक बहुत पुरानी वैरायटी है- कोनाममी (KONAMAMI) दुनिया भर में चावल की पैदावार बढ़ाने के लिए बेस रूप में इस वैरायटी का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसी तरह केरल के पोक्काली चावल की वैरायटी को ऐसी जगहों के लिए विकसित किया जा रहा है जहां पानी बहुत ज्यादा होता है, या खारा होता है, salty होता है ।
मैं FOREIGN DELEGATES को खासतौर पर बताना चाहूंगा कि भारत में चावल की एक लाख से भी ज्यादा LAND RACES हैं और इनमें से ज्यादातर सैकड़ों साल पुरानी हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे किसान इन को सहेज कर रखते गए और उसका विकास करते रहे।
और ये सिर्फ एक SPECIFIC AREA में ही नहीं हुआ। असम में अगूनी बोरा चावल की एक वैरायटी है जिसे सिर्फ थोड़ी देर पानी में भिगोकर भी खाया जा सकता है। ग्लाइसीमिक इंडेक्स के मामले में भी ये काफी LOW है, इसलिए डायबिटीज के पेशेंट्स भी इसे अपनी डाइट में शामिल कर सकते हैं।
इसी तरह गुजरात में भाल इलाके में गेंहू की एक प्रजाति है- भालिया wheat..। इसमें अधिक प्रोटीन और कैरोटिन पाई जाती है इसलिए ये दलिया और पास्ता बनाने के लिए बहुत पॉप्यूलर है। गेहूं की ये वैरायटी जीयोग्राफिकल आइडेंटिफिकेशन के रूप में रजिस्टर की गई है।
एग्रीकल्चर बायोडायवर्सिटी के एरिया में भारत का बहुत योगदान दूसरे देशों में भी रहा है।
हरियाणा की मुर्राह और गुजरात की जाफराबादी भैंसों की पहचान इंटरनेशनल ट्रांस-बाउंड्री ब्रीड के तौर पर की जाती है। इसी तरह भारत की ही ओंगोल, गिर और कांकरेज जैसी गाय की नस्लें लैटिन अमेरिकन देशों को वहां के प्रजनन सुधार कार्यक्रम के लिए उपलब्ध कराई गई थी। पश्चिम बंगाल के सुंदरवन से भेड़ की गैरोल नस्ल को ऑस्ट्रेलिया तक भेजा गया था।
एनीमल बायोडाइवर्सिटी के मामले में भारत एक समृद्ध राष्ट्रश है। लेकिन भारत में Nondescript पशु प्रजातियां ज्यारदा हैं और अभी तक केवल 160 प्रजातियों को ही रजिस्टर किया जा सका है। हमें अपनी रिसर्च को इस दिशा में मोड़ने की जरूरत है ताकि और अधिक पशु नस्लोंअ का characterization किया जा सके और उन्हेंर समुचित नस्लर के रूप में रजिस्टर किया जा सके।
कुपोषण, भुखमरी, गरीबी – इसे दूर करने के लिए टेक्नोलॉजी की बहुत बड़ी भूमिका है। लेकिन इस पर भी ध्यान देना होगा कि टेक्नॉलॉजी हम पर कैसे असर डाल रही है। यहां जितने भी लोग हैं, कुछ साल पहले तक आपमें और मुझे भी हर किसी को 15-20 फोन नंबर जरूर या रहे होंगे। लेकिन अब हालत यह हो गयी है कि मोबाइल फोन आने के बाद हमारा खुद का मोबाइल नंबर या फ़ोन नंबर हमें याद नहीं है | यह टेक्नोलोजी का एक नेगेटिव इम्पेक्ट भी है |
हमें अलर्ट रहना होगा कि एग्रीकल्चर में अपनाई जा रही टेक्नॉलॉजी से किस प्रकार से बदलाव आ रहा है। एक उदाहरण है HONEY BEE का। तीन साल पहले HONEY BEE TIME मैगजीन के कवर पेज पर थी। बताया गया कि फसलों को कीड़ों से बचाने के लिए जो पेस्टिसाइड इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे मधुमक्खी अपने छत्ते तक पहुंचने का रास्ता भूल जाती है। एक छोटी सी चीज ने मधुमक्खी पर अस्तित्व का संकट ला दिया। पॉलीनेशन में मधुमक्खी की भूमिका हम सभी को पता है। इसका रिजल्ट ये हुआ कि फसलों का उत्पादन भी गिरने लगा।
एग्रीकल्चर इकोसिस्टम में पेस्टिसाइड बड़ी चिंता का विषय हैं। इसके उपयोग से फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों के साथ ही वो INSECTS भी मर जाते हैं जो पूरे इकोसिस्टम के लिए जरूरी हैं। इसलिए AUDIT OF DEVELOPMENT OF SCIENCE भी आवश्यक है। AUDIT ना होने से दुनिया इस वक्त कई चुनौतियों से जूझ रही है।
हमारे देश में बायोडाइवर्सिटी की भिन्नता को एक ताकत की तरह लिया जाना चाहिए। लेकिन ये तब होगा जब इस ताकत का वैल्यू एडीशन किया जाए, उस पर रिसर्च हो। जैसे गुजरात में एक घास होती है बन्नी घास। उस घास में हाई न्यूट्रिशन होता है। इस वजह से वहां की भैंस ज्यादा दूध देती हैं। अब इस घास की विशेषताओं को वैल्यू ADD करके पूरे देश में इसका प्रसार किया जा सकता है। इसके लिए रिसर्च का दायरा बढ़ाना होगा।
देश की धरती का लगभग 70 प्रतिशत महासागर से घिरा हुआ है। दुनिया में मछली की अलग-अलग स्पेसीज में से 10 प्रतिशत भारत में ही पाई जाती हैं। समुद्र की इस ताकत को हम सिर्फ मछली पालन ही केंद्रित नहीं रख सकते। वैज्ञानिकों को समुद्री वनस्पति, SEA WEED की खेती के बारे में भी अपना प्रयास बढ़ाना होगा। SEA WEED का इस्तेमाल बायो फर्टिलाइजर बनाने में हो सकता है। GREEN और WHITE REVOLUTION के बाद अब हमें BLUE REVOLUTION को भी समग्रता में देखने की आवश्यकता है।
आपको एक और उदाहरण देता हूं। हिमाचल प्रदेश में मशरूम की एक वैरायटी होती है- गुच्ची। इसकी MEDICINAL VALUE भी है। बाजार में गुच्ची मशरूम 15 हजार रुपए किलो तक बिकता है। क्या गुच्ची की पैदावार बढ़ाने के लिए कुछ किया जा सकता है। इसी तरह CASTOR हो या MILLET यानि बाजरा हो । इनमें भी वर्तमान जरूरतों के हिसाब से VALUE ADDITION किए जाने की आवश्यकता है।
लेकिन यहां एक बारीक लाइन भी है। वैल्यू एडीशन का मतलब प्रजातियों से छेड़छाड़ नहीं है।
प्रकृति की सामान्य प्रक्रिया में दखल देकर ही मानव ने क्लाइमेंट चेंज जैसी समस्या खड़ी कर ली है। तापमान में बढोतरी की वजह से पौधों और जीव-जंतुओं के जीवन-चक्र में बदलाव आ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक क्लाइमेट चेंज की वजह से 2050 तक कुल वन्य प्रजातियों का 16 प्रतिशत तक विलुप्त हो सकता है। ये स्थिति चिंता पैदा करती है।
ग्लोबल वॉर्मिंग के इसी खतरे को समझते हुए भारत ने पिछले महीने 2 अक्तूबर, महात्मा गांधी की जन्म जयंती पर , पेरिस समझौते को RATIFY कर दिया है। इस समझौते को पूरी दुनिया में लागू कराने में भारत अहम भूमिका निभा रहा है। ये प्रकृति के प्रति हमारी जिम्मेदारी और जवाबदेही की वजह से है।
एग्रोबायोडाइवर्सिटी का PROPER मैनेजमेंट पूरी दुनिया के लिए प्राथमिकता है। लगातार बढ़ रही जनसंख्या का दबाव और विकास की अंधाधुंध दौड़ प्राकृतिक संतुलन को काफी हद तक बिगाड़ रहें है। इसकी एक वजह ये भी है कि मॉर्डन एग्रीकल्चर में बहुत ही गिनी चुनी फसलों और पशुओं पर ध्यान दिया जा रहा है। जबकि ये हमारी FOOD SECURITY, ENVIRONMENTAL SECURITY के साथ-साथ AGRICULTURE DEVELOPMENT के लिए भी आवश्यक था।
बायोडाइवर्सिटी के संरक्षण का अहम पहलू है आसपास के ENVIRONMENT को चुनौतियों के लिए तैयार करना। इसके लिए GENEBANKS में किसी स्पेसिफिक GENE का संरक्षण करने के साथ ही उसे किसानों को इस्तेमाल के लिए उपलब्ध भी कराना होगा। ताकि जब वो GENE खेत में रहेगा, जलवायु दबाव सहेगा, आसपास के माहौल के अनुकूल बनेगा तभी उसमें प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो पाएगी।
हमें ऐसा मैकेनिज्मस तैयार करना होगा कि हमारा किसान DESIRABLE GENES का मूल्यां कन अपने खेत में करे और इसके लिए किसान को उचित कीमत भी दी जाए। ऐसे किसानों को हमें अपने रिसर्च वर्क का हिस्सान बनाना चाहिए ।
बायोडाइवर्सिटी के संरक्षण के लिए International, National & Private संगठन और Expertise, technology & resources का pool बनाकर कार्य करें तो सफलता मिलने की संभावना निश्चित रूप से बढ़ेगी । इस प्रयास में हमें एक shared vision बनाने और अपनाने की दिशा में बढ़ना होगा।
हमें ये भी देखना होगा कि एग्रोबायोडाइवर्सिटी के संरक्षण से जुड़े अलग-अलग नियमों को किस प्रकार harmonize करें जिससे कि ये कानून विकासशील देशों में कृषि और किसानों की प्रगति में बाधक न बनें।
आप सभी अपने-अपने क्षेत्र के EXPERTS हैं। आपके द्वारा इस सम्मेनलन में अगले तीन दिनों में एग्रोबायोडाइवर्सिटी के विभिन्न पहलुओं पर गहन चर्चा की जाएगी।
आज दुनिया के करोड़ों गरीब हंगर, मालन्यूट्रिशन और पावर्टी जैसी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। इन चुनौतियों से निपटने के लिए साइंस और टेक्नॉलोजी की भूमिका बहुत अहम है। इस बात पर मंथन आवश्यक है कि इन समस्याओं का हल निकालते समय SUSTAINABLE DEVELOPMENT और बायोडाइवर्सिटी के संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण आयामों की अनदेखी ना की जाए।
साथियों, हमारी एग्रोबायोडाइवर्सिटी आगामी पीढि़यों की धरोहर है और हम केवल इसके संरक्षक हैं इसलिए हम सब मिलकर सामूहिक प्रयास से ये सुनिश्चित करें कि ये NATURAL RESOURCE हम अपनी भावी पीढि़यों के लिए उसी रूप में उन्हें सौपें जिस रूप में हमारे पूर्वजों ने इसे हमें सौंपा था। इसके साथ फिर से एक बार आप सबका ह्रदय से स्वागत करते हुए बहुत
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