मीठी स्मृतियां : वो बीते दिन
स्वच्छता, पौष्टिक भोजन, नियमित व्यायाम, प्रतिरोधक क्षमता का विकास करना, सामाजिक दूरी, मानसिक अवसाद को दूर रखना, आध्यात्मिक शांति, संवाद और संपर्क बनाये रखना- ये सब शब्द इस कोरोना काल की नयी शब्दावली में बहुत प्रचलित हुए है। ये शब्द, इनके अभिप्राय कोई नये नहीं है। वस्तुत: ये शब्द हमारे तथाकथित आधुनिक जीवन तथा उस पुराने सरल और सरस जीवन के बीच की खोई हुई कड़ी है, जो स्वयं मैंने और मेरी पीढ़ी के लोगों ने जिया। उसकी खोई मीठी स्मृतियों को आज की पीढ़ी के साथ इस विश्वास से साझा करना चाहता हूँ कि इस कोरोना काल में उन्हें कुछ सहायता मिल सके।
उन दिनों सूर्योदय से पहले ही जागना स्वर्णिम नियम होता। जागने के बाद पहला काम नीम की दातुन लेकर उसे देर तक चबाना और उससे दांत साफ करना होता था। आधुनिक टूथ पेस्ट से पहले वृक्षों की दातुन ही चलती थी। तब दांतों के रोग से लोग प्राय: अनजान ही थे। अब तो रूट कनाल कराना आम बात हो गई है।
उन दिनों दिन का पहला भोजन, बीती रात का बचा बासी खाना हुआ करता जिसे पानी या मट्ठे में भिगो कर मिर्च तथा प्याज या नींबू या आम के अचार के साथ स्वाद लेकर खाया जाता। यह भी एक प्रकार का व्यंजन ही था जो अगले भोजन तक परिश्रम के लिये आवश्यक ऊर्जा देता। आजकल इसे प्रो बायोटिक भोजन के रूप में जाना जाता है जिससे प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। आजकल कई लोग प्राय: आधुनिक नाश्ता करने से पहले ग्लूकोमीटर से रक्त में शर्करा की जांच करते हैं। बाजरे के आटे की आजकल बड़ी महत्ता है जबकि उन दिनों मोटा अनाज ही भोजन का मूल अवयव होता था जो रक्त की शर्करा को भी नियंत्रित रखता।
उन खुशहाल स्वर्णिम दिनों में सेहत का राज, घर के पीछे या खेतों में पैदा होने वाली ताजी सब्जियां और फल हुआ करते। हर भोजन ताजा पका कर तैयार किया जाता, रैफ्रीजरेटर का तो नाम निशान न था। इमली, हल्दी, अदरक तथा अन्य मसाले रोजमर्रा के भोजन के अंग थे, जिन्हें आज कल वाइरस के विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिये तजवीज किया जा रहा है।
तब भोजन में व्यंजनों की विविधता तो नहीं थी लेकिन फिर भी वह पौष्टिक और संतुलित होता जिसमें कड़े परिश्रम के लिये जरूरी ऊर्जा देने वाले कार्बोहाइड्रेटस तथा मांसपेशियों को सशक्त करने वाले प्रोटीन होते, दोनों ही घर के पीछे के खेतों से ही प्राप्त हो जाते थे। हफ्ते में एक दिन मांसाहारी व्यंजन बनता, शाकाहारी लोगों के लिये विकल्प के रूप में दाल होती थी।
खेत जाने के लिये पैदल दो किलोमीटर की सैर, दिनचर्या का भाग थी। दोपहर तक खेतों में कड़े परिश्रम के दौरान कई बार उठने, बैठने, मुड़ने, झुकने से खासा व्यायाम हो जाता जिससे शरीर चुस्त दुरूस्त रहता। सुहावनी शाम को हरियाली से भरे खेतों के बीच मेड़ पर चलना, ऐसे में मंद पवन के झोंके स्वर्गिक आनंद देते। घास और हरे चारे का गट्ठर उठाये वापस उतनी ही दूरी पैदल सैर करना, फिर मवेशियों तथा बछड़े को चारा खिलाना, हरा चारा देखकर बछड़े का खुशी से उछलना-कूदना, ये सभी स्मृतियां वर्णनातीत हैं। आज की आराम तलब आधुनिक जिंदगी तो व्याधियों का वो सिलसिला है जिसने बड़ी भारी कीमत वसूली है।
तब न बिजली थी और न टेलीवीजन, सूर्यास्त समय शाम को सात बजे तक रात्रि का भोजन समाप्त करने के बाद लोग मंदिर में एकत्र होकर सामूहिक भजन-कीर्तन करते। सुमधुर भजनों की स्वर लहरी पर थिरकते युवा न सिर्फ मनोरंजन करते बल्कि यह नृत्य अच्छा खासा व्यायाम भी हुआ करता। नुक्कड नाटक, कठपुतली का नांच - मनोरंजन के आम साधन थे। इस सबके बाद रात्रि 10 बजे तक सब सोने चले जाते- अर्थात रात्रि भोजन के 3 घंटे के बाद। आज भी भोजन और सोने के बीच 3 घंटे का अंतराल तजवीज़ किया जाता है लेकिन इस पर अमल से अधिक उल्लंघन ही होता है।
तब जीवन प्रकृति के साथ, प्रकृति के सुखद सानिध्य में बीतता, वर्षा का उत्सव मनाया जाता, यहां तक कि कड़ी गर्मी को भी आदरपूर्वक स्वीकार किया जाता क्योंकि वह अगली अच्छी वर्षा के लिये जरूरी होती थी। आधुनिक शहरी जीवन तो दोनों को ही कोसता है।
गांवों में गायों, भेड़ों, बकरियों तथा अन्य मवेशियों का कोलाहल रहता। ग्रामीण जन अपने दैनिक जीवन का बड़ा भाग और श्रम मवेशियों की सेवा सुश्रूषा, उन्हें चारा देने तथा गौशाला की साफ-सफाई में व्यतीत करते। गोबर और गोमूत्र का प्रयोग मक्खी दूर करने के लिए डिसइंन्फेक्टेंट के रूप किया जाता।
दूध बेचा नहीं जाता था बल्कि अपने स्वजनों के साथ साझा किया जाता था। दही को मथ कर मट्ठा बनाना, पुरूषों और महिलाओं दोनों के लिए नियमित अभ्यास था। आज तो गांवों में भी मवेशी दिखना मुश्किल है। आश्चर्य नहीं कि गांव अपनी जीवतंता खो रहे हैं, व्याधियां बढ़ रही है।
तब न कोई रासायनिक कीटनाशक थे न ही रासायनिक खाद। खेती प्राय: प्राकृतिक और जैविक तत्वों से होती थी। गोबर और सड़ा हुआ चारा मिला कर खाद और मिट्टी के लिए अन्य पोषक तत्व तैयार किये जाते। फल और सब्जियां अपने नैसर्गिक रंगों में खिलते और निखरते थे। अब ऐसा नहीं होता। देसी बीजों में सूखे और कीटों के विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता थी। आधुनिक उर्वरक तथा कीटनाशक तो खुद ही हमारे स्वास्थ्य के लिये चिंता का बड़ा कारण हैं। आज फिर से जैविक उत्पादों के लिये मांग बढ़ी है तथा एक नये व्यवसाय के रूप में जैविक खेती का उदय हुआ है।
सामाजिक बंधनों से ऊपर उठकर सभी की भागीदारी से, पर्व - त्यौहार उल्लासपूर्ण उत्सव बन जाते थे। वे Sharing and Caring अर्थात सौहार्द और सेवा का अवसर होते थे। सामुदायिक भोज आयोजित करना, सम्मानीय होता था विशेषकर जब ऐसे अवसरों पर गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा और सम्मान किया जाता था। पर्व, प्रकृति का उत्सव होते थे, उसकी ऋतुओं का उत्सव होते थे। पर्व, प्रकृति के प्रति सादर आभार व्यक्त करने का भी अवसर होते। जमींदार से लेकर श्रमिक तक सभी उत्सवों में खुशी से भाग लेते।
नदियां, तालाब पेयजल के स्रोत होते, जिसे न छानने, न साफ करने की जरूरत पड़ती। प्रतिरोधक क्षमता तो प्रकृति ने ही प्रदान कर रखी थी। आजकल मिनरल वाटर का उद्योग तेजी पर है और उसी तेजी से प्रतिरोधक क्षमता को लेकर स्वास्थ्य समस्याऐं भी बढ़ रही हैं। दिन भर सूर्य की रोशनी में रहना, फिर रात में खुले आकाश के नीचे चांदनी का आनंद लेते हुए सोना, ये सब काफी हद तक हमारी सेहत पर अच्छा असर डालते थे। आधुनिक जीवन तो चारों ओर से दीवारों में कैद है, दम घोंटने वाला।
गांवों के तालाबों की मरम्मत करनी हो या कुओं को खोदना हो या मेड़ों और बांधों को मजबूत किया जाना हो या फिर नाली-नहर की खुदाई करनी हो-सभी काम गांववासी स्वयं ही मिल जुल कर कर लेते, कभी किसी ठेकेदार की जरूरत न पड़ती।
तब जीवन सामाजिक संबंधों में पनपता था जो भावनात्मक, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते। दुख-सुख साझे होते थे। यही हमारे संस्कार थे। हर व्यक्ति दूसरे का सहारा था। इसी प्रकार हर परिवार दूसरे परिवार का संबल था।
शादी विवाह के अवसर पर गांव वाले मिलकर परिवार की हर संभव सहायता करते। शादी में प्रयुक्त होने वाले मसाले, तेल, बर्तन, आवागमन के लिये बैलगाड़ियों की व्यवस्था, यह सब ग्रामीण समुदाय मिल जुल कर करता। शादी विवाह गांव की प्रतिष्ठा से जुड़ा विषय बन जाता।
किसी के अकेला या उपेक्षित महसूस करने का न कोई कारण होता, न अवसर, अत: मानसिक अवसाद का तो कोई कारण ही न होता था। इसके विपरीत आज आधुनिक जीवन में अकेलापन है, कटाव है और परिणामस्वरूप मानसिक अवसाद की स्थिति पैदा होती है। स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि उन बीते दिनों की सरसता, सहजता, सरलता आधुनिक जीवन में नहीं। तब जीवन वृहत्तर समुदाय के साथ जिया जाता था, अलग से जन्मदिन भले ही न मनाया जाता हो, जैसा कि अकेलेपन से ग्रस्त आज के आधुनिक जीवन का प्रचलन है।
आजकल कई सांस्कृतिक परंपराओं तथा प्रथाओं का प्राय: उपहास उड़ाया जाता है। उन दिनों अतिथि या आगंतुक या परिवार के ही किसी सदस्य को भी, घर में प्रवेश से पहले जूते चप्पल बाहर उतार कर, हाथ और पैर धोना आवश्यक था। आज कोरोना काल में यह प्रथा वापस प्रचलन में आ गई है। ये कोई नया अविष्कार नहीं है बल्कि अपनी ही पुरानी प्रथाओं को पहचानना है। उन्हें पुनर्जीवित करना है। उस समय की जीवन शैली विज्ञान के प्रामाणिक सिद्धांतो पर आधारित थी जिन्हें आधुनिक जीवन में हाल तक तिलांजलि दे रखी थी लेकिन उन्हें अब फिर से अपनाया जा रहा है।
जीवन शैली से जुड़ी बीमारियां प्राय: अनसुनी ही थी। छोटी मोटी बीमारियों, कष्टों के लिये तो नानी दादी ही मुख्य चिकित्सक होती, उनके नुस्खे, उनकी बनायी वटी और बूटियां चमत्कारिक प्रभाव दिखातीं। सिर और बालों में नियमित नारियल का तेल लगाना तथा रीठे से स्नान करना, तब जीवनशैली का भाग था। इस कारण बालों को रंगने की आवश्यकता न पड़ती। बालों के झड़ने की शिकायत भी कम ही होती। तिल के तेल से बच्चों के शरीर की हफ्ते में एक बार मालिश, फिर गर्म पानी से स्नान भी नियमित जीवनचर्या का भाग था। आजकल तो स्पा का प्रचलन बड़ी कीमत लेता है।
प्रकृति और उसके अवयवों के उपचारात्मक और प्रतिकारात्मक गुणों को देखते हुये, हर घर के आंगन में आम तौर पर तुलसी का पौधा होता ही था। आम और पान के पत्तों के तोरण से घरों के प्रवेश द्वार सजाये जाते थे। इनके अपने चिकित्सकीय गुण होते है। बांस और ताड़ पत्रों से आच्छादित आश्रयों की छांव तेज गर्मी से तो बचाती लेकिन मुक्त बहती शीतल पवन का आनंद भी देती थी। इसके विपरीत आज के एयर कंडीशंड बंद कमरों में कोरोना वायरस का खतरा बढ़ ही जाता है।
तब आरामदेय जीवनशैली और स्वास्थ्य में संतुलन था। जब काम नहीं होता था तब हर वर्ग के लिये कई तरह के खेल जैसे कबड्डी, खोखो, गिली डंडा, नंगे पांव दौड़ना, मोमबत्ती के साथ दौड़ना, लट्टू चलाना, लुकाछिपी, रंगोली बनाना- ये मनोरंजन तथा शारीरिक व्यायाम के साधन थे। गांव के तलाबों में तैराकी प्रतियोगिता, ताड़ तथा अन्य वृक्षों पर चढ़ने उतरने की प्रतियोगिता, विभिन्न अवसरों पर बैलों का श्रृंगार करना, पहेली बुझाना, ये सभी गतिविधियां स्वस्थ प्रतिस्पर्धा जगाती थी।
जहां उस समय की सक्रिय और स्वस्थ जीवनशैली थी वहीं आजकल की जीवन शैली में आराम तलबी है और उससे पैदा हुई हर तरह की व्याधियां व्याप्त हैं। इसका कारण है कि उस समय जीवन में जो सरसता थी, आशामय जीवतंता थी, जिजीविषा थी, वो रस आज की जीवनशैली से लुप्त हो गया है।
तब जीवन की आकाक्षाएं, अपेक्षाएं सीमित थी जबकि आज भौतिक उपभोक्तावाद जीवन की दिशा तय कर रहा है।
परिणामस्वरूप, तब लोग एक खुशहाल परिपूर्ण जीवन जीते थे, आज जीवन अनेक बाधाओं, अवसादों, व्यवधानों से ग्रस्त है। इसका समाधान है कि हम अपने जीवन के हर पहलू में रूचि और रस लायें।
यह करोना काल हमें अवसर देता है कि हम अपने जीवन के बारे में सोचे तथा उन आदर्शो, जीवन मूल्यों को आत्मसात करें जिससे हमारा जीवन अधिक सुरक्षित, संतुष्ट, अर्थपूर्ण बन सके, अधिक संवरा और सुलझा हुआ हो। प्रगति का अर्थ है अतीत की नींव पर वर्तमान का निर्माण, इस निर्माण के लिये अतीत की पंरपराओं में आवश्यक सुधार तो किये ही जाने चाहिये लेकिन तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में अतीत को भुलाया नहीं जा सकता।
प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्ण संतुलन बना कर रखना, समय की मांग है। भोजन में सावधानी, शारीरिक सक्रियता, सोना, सकारात्मक मानसिकता, मन पर संयम, काम और निजी जीवन में संतुलन, जीवन के निहित अभिप्राय और उद्वेश्य को समझना, यही सही जीवनशैली है।
भारतीय जीवन शैली का आधार ही शांति, अहिंसा, करूणा, सौहार्द और सेवा तथा भाईचारा रहा है। आइए उसी के अनुसार जीवन जियें।
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